फर्रुखाबाद। (एफबीडी न्यूज़) सनातन धर्मी दीपावली पर भगवान गणेश एवं लक्ष्मी का पूजन कर दीप जला कर धूमधाम से दिवाली मनाते हैं। जबकि बहुत अनुयाई राजकुमार गौतम के द्वारा ज्ञान प्राप्त कर कर वापस लौटने की खुशी में दीप जलाकर दीपदानोत्सव पर्व मनाते हैं। बौद्ध किवदंतियों के अनुसार अब सेे 2500 वर्ष पूर्व राजकुमार सिद्धार्थ गौतम को बोध गया में बोधि वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई थी और वे सिद्धार्थ से बुद्ध बन गए थे। बुद्ध, ज्ञान प्राप्ति करने के बाद जब कपिलवस्तु वापस आये तो बुद्ध के समर्थकों ने उनके स्वागत में लाखों दीप जलाकर दीप दानोत्सव पर्व मनाया था।
सम्राट अशोक महान ने देश में बौद्ध धम्म को स्थापित करने के बाद बुद्ध वचनों के प्रतीक रूप में चौरासी हजार बुद्ध विहार और स्तूपों का निर्माण करवाया। सभी निर्माण पूर्ण हो जाने के बाद अशोक महान ने कार्तिक अमावश्या को एक भब्य उद्घघाटन महोत्सव का आयोजन किया। इस महोत्सव के दिन सारे नगर, द्वार, महल, विहारों एवं स्तूपों को दीप माला एवं पुष्प माला से अलंकृत किया गया। सम्राज्य के सारे नागरिकों ने इसे एक त्यौहार के रूप में हर्षोल्लास के साथ मनाया था सम्राट अशोक ने इस त्यौहार को “दीप दानोत्सव” नाम दिया था।
सम्राट अशोक के आदेश पर यह त्यौहार शुरू हुआ और आज तक पूरे देश में उल्लास पूर्व मनाया जाता है। सम्राट अशोक के बाद सम्राट बृहाद्रथ के समय में भी यह त्यौहार पूरे उत्साह और खुशियों के साथ संपूर्ण भारत देश में मनाया जाता रहा। सम्राट अशोक द्वारा शुरू किया गया दीप दानोत्सव का महोत्सव एक त्यौहार के रूप में हर्सोल्लास के साथ मनाया जाता है।
घरों में स्तूप के प्रारुप में आँगन अथवा द्वार पर स्तूप बनाया जाता है। जिसे आज किला , घर कुंडा अथवा घरौंदा कहा जाता है इस दिन उपसोथ (भिक्खुओं के सानिध्य में घर अथवा विहार में धम्म कथा सुनना) किया जाता और बुद्ध वंदना किया जाता है। भिक्खुओं को कल्याणार्थ दान दिए गए।
दीप दानोत्सव दिवस के दूसरे दिन गोबर्धन पूजा होता है। गोबर्धन पूजा के एक दिन बाद बैल पूजा होता है यह सिन्धु घटी सभ्यता के समय के सांढ पूजा की परंपरा की मज़बूत कड़ी है।
सम्राट अशोक के दीप दानोत्सव या दिपोत्सव का संबंध था “द्वारा स्थापित चमकदार स्तंभ बौद्ध संघ की नींव की निशानी है। इस स्तंभ के ऊपर के शेर को भारत के राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में अपनाया गया है।
प्रमुख बौद्ध तीर्थ स्थल
संकिसा
मान्यता है कि स्वर्ग में अपनी मां को संबोधित करने के बाद भगवान बुद्ध ने यहां अवतरण लिया था। यह फर्रुखाबाद जिले में काली नदी के तट पर बसंतपुर गांव के साथ जुड़ा हुआ है। सम्राट अशोक ने इस पवित्र स्थान को चिह्नित करने के लिए यहां एक स्तंभ बनवाया था।
श्रावस्ती
बहराइच से मात्र 15 किमी दूर इस जगह कई संरक्षित स्तूप और खंडहर हैं। प्राचीनकाल में यह कोसल साम्राज्य की राजधानी थी और यहां बुद्ध ने अपनी दिव्य शक्तियों का प्रदर्शन कर उन लोगों को प्रभावित करने का प्रयास किया जो उनमें विश्वास नहीं करते थे। ऐसा माना जाता है कि इसे पौराणिक राजा श्रावस्त द्वारा स्थापित किया गया था। यहां बुद्ध ने अपने जीवन के 27 साल गुजारे थे।
कुशीनगर
गोरखपुर से लगभग 50 किमी की दूरी पर कुशीनगर में बुद्ध ने अपनी आखिरी सांसें ली थीं। यहां महापरिनिर्वाण मंदिर में 1876 में खुदाई के दौरान मिली बुद्ध की एक विशाल मूर्ति स्थापित है। कुशीनगर में खुदाई से यह भी ज्ञात होता है कि यहां 11वीं सदी में भिक्षुओं का बड़ा समुदाय रहता था।