आधुनिकता की देन है पर्यावरण प्रदूषण: जिसके कारण ही पूरा ब्रह्मांड संकट के दौर मे

फर्रुखाबाद। (एफबीडी न्यूज़) विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर नगर स्थित गुरु विरजा नंद आर्ष गुरुकुल भोलेपुर में पर्यावरण गोष्ठी का आयोजन किया गया। जिसमें वक्ताओं ने पर्यावरण में बढ़ते प्रदूषण एवं उसके निवारण पर विचार प्रस्तुत किये। गुरूकुल के ब्रह्मचारियों ने औषधि युक्त सामिग्री से यज्ञ किया।श आचार्य ओमदेव ने यज्ञ संपन्न कराया। कार्यक्रम की अध्यक्षता गुरूकुल के अधिष्ठाता आचार्य चंद्रदेव शास्त्री ने की।

उन्होंने अपने उद्बोधन में कहा कि अग्निहोत्र अर्थात यज्ञ पर्यावरण शुद्धि का सर्वोत्तम साधन है।
यज्ञ आज केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रह गया है। यह शोध का विषय भी बन गया है। ‘अमेरिका’ में यज्ञ पर शोध हुए हैं और प्रायोगिक परीक्षणों से पाया गया है कि वृष्टि, जल एवं वायु की शुद्धि, पर्यावरण संतुलन एवं रोग निवारण में यज्ञ की अहम भूमिका है। प्रकृति में मौजूद समस्त जैविक और अजैविक घटक पर्यावरण की संरचना में सहायक हैं।

अर्थात् भूमि, जल, वायु, वनस्पति, जंतु, मानव और सूर्य प्रकाश पर्यावरण के घटक हैं। पृथ्वी पर जीवन की निरंतरता बनी रहे, इसके लिए प्रकृति के घटकों का एक निश्चित अनुपात तथा संतुलित रहना जरूरी है, तभी हमारा वर्तमान और भविष्य सुरक्षित रह सकता है। प्रकृति और मानव का सृष्टि के आरंभ से ही अन्योन्याश्रित संबंध रहा है, आधुनिक युग में मानव की आवश्यकताएं चरम पर हैं। जिसकी पूर्ति के लिए मानव ने प्रकृति का निर्दयतापूर्वक दोहन शुरू कर दिया।

परिणाम सबके सामने है- ‘पर्यावरण प्रदूषण’, पूर्णतया आधुनिकता की देन हैं। प्रदूषण के कारण ही पूरा ब्रह्मांड संकट में है। हमारी प्राचीन धार्मिक परंपराएं इतनी महत्वपूर्ण हैं कि समूचे जन-जीवन को सुख-समृद्धि प्रदान करने के साथ ही ये विज्ञान सम्मत भी हैं। उदाहरणस्वरूप यज्ञ को ही लें यज्ञ एक ठोस वैज्ञानिक प्रक्रिया है, जो हमारे जीवन का अभिन्न अंग है।

महर्षि दयानंद ने भी कहा था, “यदि पर्यावरण की शुद्धि एवं सुखों की वृद्धि चाहते हो तो नित्य प्रातः सायं प्रत्येक घर में हवन-यज्ञ करो। यज्ञ की परंपरा प्राचीनकाल से रही है।श ऋषि वनों में रहते हुए प्रातः सायं दैनिक यज्ञ किया करते थे। पंच महायज्ञों का प्रचलन था। मध्यकाल में यज्ञ को विकृत तथा विलुप्त होते देख महर्षि दयानंद ने यज्ञ को ज्ञान, विज्ञान का कारक बनाकर उसे आध्यात्मिक मंच पर पुनः प्रतिष्ठित किया और कहा, “एते पंच महायज्ञा मनुष्यैर्नित्यं कर्त्व्याः।

यज्ञ का संबंध मन से है और शुभ संस्कार मन के साथ रहते हैं। आचार्य संदीप आर्य ने कहा कि यज्ञ से मानव के भौतिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, प्राकृतिक एवं व्यक्तिगत उद्देश्य पूर्ण होते हैं। यज्ञ किसी-न-किसी इच्छा की पूर्ति के लिए किया जाता है। अग्नि अमूल्य है जीवन का संबंध आरोग्यता से है और आरोग्यता से है संबंध यज्ञ से है। आचार्य ओमदेव ने कहा हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने वैज्ञानिक आधार पर शोध करके सामग्री व समिधाओं का चयन किया था।

जैसे-बड़, पीपल, आम, बिल्व, पलाश, शमी, गूलर, अशोक, पारिजात, आंवला व मौलश्री वृक्षों के समिधाओं का घी सहित यज्ञ-हवन में विधान किया था, जो आज विज्ञान सम्मत है, क्योंकि यज्ञ का उद्देश्य पंचभूतों की शुद्धि है, जो हमारे पर्यावरण का अंग हैं। यज्ञ का वैदिक उद्देश्य भी पर्यावरण शुद्धि एवं संतुलन है। हरिओम शास्त्री ने कहा कि ऋषियों ने इसका अर्थ दिया है कि भौतिक अग्नि पदार्थों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म होने पर उनकी क्रियाशीलता उतनी ही बढ़ जाती है।

यह एक वैज्ञानिक सिद्धांत है। उन्होंने कहा हम सभी को अपने पारिवारिक आयोजनों को वृक्ष लगाकर ही मनाना चाहिए जिससे प्राकृतिक का संतुलन बचा रहे। इस अवसर पर गुरूकुल परिसर में औषधीय पौधों का रोपण भी किया गया जिसमें ब्रह्मचारियों ने सहयोग प्रदान किया। आज के कार्यक्रम में इंद्रजीत आर्य,सुरेश चंद्र वर्मा,हर्ष आर्य,उदयराज आर्य,यज्ञ प्रताप आर्य, बनबारी लाल , शिवम आर्य,ब्रह्मचारी अहम आर्य उदिता आर्या आदि उपस्थित रहे।